आज की राजनीति में विचारधाराओं का कोई महत्व नहीं रह गया

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आज राजनीति पूरी तरह से व्यवसाय का रूप ले चुकी है। जितना पैसा राजनीति में है और जितना व्यक्ति सुरक्षित है उतना और कहीं नहीं है। व्यापार-धंधे पूरी तरह से पिटे हुए हैं। पहले राजनीति में पार्टियों की जो विचारधारा होती थी वह अलग- अलग तरीके की होती थी और दल-बदल ना के बराबर था एवं अपनी ही शर्त पर और पार्टी की विचारधारा पर चुनाव लड़ा जाता था। ऐसा पहले देखने को मिला। आज बीजेपी जैसी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भी अपने विचारों से बाहर जाती दिख रही है। वैसे तो जब से मोदी जी और अमित शाह आए हैं। राजनीति को उन्होंने व्यवसाय का रूप दे दिया है, जो उनके साथ आ जाए वह पाप मुक्त हो जाता है। उन्हें किसी भी पार्टी के सदस्य को अपने में मिलाने में कोई परहेज नहीं है, जबकि इसी पार्टी के जन्मदाता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने सिर्फ एक वोट कम मिलने पर अपना इस्तीफा सौंप दिया था। आज बड़ा अफसोस हुआ कि एक परिवार की बहू अपर्णा यादव जो कि समाजवादी पार्टी से है या यह भी कह सकते हैं कि समाजवादी पार्टी उनकी ही है। वह भी बीजेपी में शामिल हो गईं। लेकिन बात यहां तकलीफदेय हुई कि एक छोटे से सदस्य को बीजेपी में आने के लिए उनका स्वागत पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं मु यमंत्री जी ने किया। अपर्णा ऐसी कौन सी नेता बन गईं जिनके लिए स्वयं राष्ट्रीय अध्यक्ष वेलकम करने आए। मेरे हिसाब से तो उनके लिए लखनऊ का बीजेपी का जिला अध्यक्ष ही काफी था। बस आज की राजनीति इसी तरह भटक रही है। अपर्णा यादव कौन हैं? राजनीति में उनका क्या मुकाम है? क्या वह एक पार्टी नेता की बहू हैं या इसके अलावा और कुछ? बीजेपी को किसी से कोई गुरेज नहीं रह गया, उनको तो अब सिर्फ सत्ता दिखती है। चाहे उनके दुश्मन रहे सिंधिया जी जो हर भाषण में मोदी जी को कोसते रहते थे, हों या टीएमसी के जिन्हें बीजेपी गुंडे बोलती है। अगर बीजेपी में आ जाते हैं तो वह शरीफ बन जाते हैं। बीजेपी का अपना एक अलग महत्व था, जिसको आज के दो नेताओं ने खत्म कर दिया। इनका सिर्फ एक ही मकसद है कि किसी भी तरह हो सत्ता में बने रहना। ईडी, आईटी का खुलकर इस्तेमाल चुनाव के समय में हो रहा है हालांकि इस समय जनता काफी समझदार हो चुकी है, लेकिन यह बड़ी विड बना है कि पार्टी के पुराने लोग जिन्होंने अपना जीवन पार्टी की सेवा में समाप्त किया उनको दरकिनार करके आज ही पार्टी में शामिल हुए लोगों को टिकट देना एवं बड़े पदों से नवाजना जैसे कि मप्र में सिंधिया के जो विधायक दोबारा नहीं जीत पाए उन्हें किसी ना किसी विभाग का अध्यक्ष बनाकर राज्यमंत्री का दर्जा देना, यह दि ााता है कि हमारा अब कोई ईमान-धर्म नहीं है। हमें तो सिर्फ कुर्सी चाहिए। आज की बीजेपी वन मेन शो पर चल रही है। दूसरों के ऊपर परिवारवाद का आरोप लगाते हैं जबकि हर बीजेपी नेता अपने पुत्रों को टिकट दिलाने की जुगत में लगे हुए हैं। क्या जरूरी है कि जिसका बाप राजनीति करता हो तो उसका बेटा भी राजनीति करे? ऐसे कितने केस हैं बीजेपी के, जिन्हें परिवारवाद कहा जा सकता है। जब इतने जोड़- तोड़ कर चुनाव लड़े जाएंगे तो फिर विचारवाद कहां रहेगा? फिर देश से किसी को ज्यादा लेना- देना नहीं है। अपना घर भरना चाहिए, बाकी जनता को तो ५ किलो गेहूं और चावल ७० साल से मिलते आ रहे हैं और आगे भी वोट के लिए मिलते रहेंगे। धन्यवाद…

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